परमानंद कटारा बनाम भारत संघ (1989) एक महत्वपूर्ण सुप्रीम कोर्ट का फैसला है, जिसमें यह तय किया गया कि सड़क दुर्घटना में घायल किसी भी व्यक्ति को तत्काल चिकित्सा सहायता देना हर अस्पताल और डॉक्टर का कर्तव्य है, चाहे वह सरकारी हो या निजी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के तहत राज्य की जिम्मेदारी को रेखांकित किया कि वह जीवन की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि चिकित्सा सहायता देने में किसी भी प्रकार की कानूनी औपचारिकताओं को प्राथमिकता नहीं दी जानी चाहिए।
मामले की पृष्ठभूमि में एक अखबार की रिपोर्ट के आधार पर मानवाधिकार कार्यकर्ता पंडित परमानंद कटारा ने जनहित याचिका दायर की थी जिसमें बताया गया कि एक स्कूटर सवार को रास्ते में घायल होने पर अस्पताल में तुरंत इलाज नहीं मिला क्योंकि अस्पताल मेडिको-लीगल केसों के लिए अधिकृत नहीं था और उसे दूसरे अस्पताल भेज दिया गया जो 20 किमी दूर था। इस विलंब के कारण घायल की मृत्यु हो गई। सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि ऐसे किसी भी घायल को तुरंत चिकित्सा सहायता दी जानी चाहिए ताकि जीवन बचाया जा सके और प्रक्रिया विवाद बाद में चली।
इस निर्णय से मेडिकल इमरजेंसी में "गुड समरिटन लॉ" लागू हुई और चिकित्सा संस्थानों को बाध्य किया गया कि वे जीवन रक्षक चिकित्सा तुरंत प्रदान करें और कानूनी औपचारिकताओं के कारण मदद पर रोक न लगाएं। यह निर्णय भारत में आपातकालीन चिकित्सा सुविधा के अधिकार को संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने वाला मील का पत्थर माना जाता है
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