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Emergency medical Aid परमानन्द कटारा vs UOI : AIBE 20 विशेषांक

 परमानंद कटारा बनाम भारत संघ (1989) एक महत्वपूर्ण सुप्रीम कोर्ट का फैसला है, जिसमें यह तय किया गया कि सड़क दुर्घटना में घायल किसी भी व्यक्ति को तत्काल चिकित्सा सहायता देना हर अस्पताल और डॉक्टर का कर्तव्य है, चाहे वह सरकारी हो या निजी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के तहत राज्य की जिम्मेदारी को रेखांकित किया कि वह जीवन की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि चिकित्सा सहायता देने में किसी भी प्रकार की कानूनी औपचारिकताओं को प्राथमिकता नहीं दी जानी चाहिए।  मामले की पृष्ठभूमि में एक अखबार की रिपोर्ट के आधार पर मानवाधिकार कार्यकर्ता पंडित परमानंद कटारा ने जनहित याचिका दायर की थी जिसमें बताया गया कि एक स्कूटर सवार को रास्ते में घायल होने पर अस्पताल में तुरंत इलाज नहीं मिला क्योंकि अस्पताल मेडिको-लीगल केसों के लिए अधिकृत नहीं था और उसे दूसरे अस्पताल भेज दिया गया जो 20 किमी दूर था। इस विलंब के कारण घायल की मृत्यु हो गई। सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि ऐसे किसी भी घायल को तुरंत चिकित्सा सहायता दी जानी चाहिए ताकि जीवन बचाया जा सके औ...

Population Control जावेद vs स्टेट ऑफ हरियाणा : AIBE 20 विशेषांक

  जावेद बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा (Javed vs State of Haryana) एक महत्वपूर्ण सुप्रीम कोर्ट का फैसला है, जिसमें हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 के उन प्रावधानों की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी जो दो से अधिक जीवित बच्चों वाले व्यक्ति को पंचायत चुनाव लड़ने और पंचायत में पद धारण करने से अयोग्य ठहराते हैं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि अधिनियम की धारा 175(1)(क्यू) और 177(1) वैध हैं। धारा 175(1)(क्यू) के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति के दो से अधिक जीवित बच्चे हैं, तो वह सरपंच, पंच, पंचायत समिति या जिला परिषद का सदस्य नहीं बन सकता। धारा 177(1) में इस अयोग्यता के प्रभाव की शुरुआत अधिनियम लागू होने के एक साल बाद से मानी गई है। न्यायालय ने इस कानून को संवैधानिक रूप से सही माना और इसे पारिवारिक नियोजन व जनसंख्या नियंत्रण के उद्देश्य से आवश्यक और सार्वजनिक हित में बताया। इस प्रकार यह कानून दो से अधिक बच्चों वाले व्यक्तियों के पंचायत चुनावों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाता है ताकि परिवार नियोजन को बढ़ावा दिया जा सके। इस फैसले से यह स्थापित हुआ कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए सरकार का यह...

Seed of PIL मुंबई कामगार सभा vs अब्दुल : AIBE 20 विशेषांक

मुंबई कामगार सभा vs अब्दुलभाई फैजुल्लाभाई (1976) एक महत्वपूर्ण सुप्रीम कोर्ट का फैसला है जो बोनस भुगतान अधिनियम, 1965 से संबंधित है। इस केस में मुंबई के छोटे व्यवसायों द्वारा स्वैच्छिक रूप से कामगारों को दिया जाने वाला अतिरिक्त बोनस अचानक बंद कर दिया गया था। जब कामगारों ने इस पर कानूनी कार्रवाई की, तो पहले औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत मध्यस्थ बोर्ड ने उनकी मांग ठुकरा दी, फिर औद्योगिक अधिकरण तथा उच्च न्यायालय ने भी उनके दावे को खारिज कर दिया।  सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई एक 2-न्यायाधीशों की पीठ ने की, जिसमें न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर और न्यायमूर्ति एन.एल उंटवालिया थे। इस फैसले ने जनहित याचिका (PIL) की अवधारणा को कानूनी तौर पर मान्यता दी और आम आदमी को न्यायालय तक पहुंचाने के लिए PIL के महत्व को स्थापित किया। इस केस को भारत में PIL के शुरुआती मामलों में से एक माना जाता है।  संक्षेप में, इस निर्णय ने लाभ-आधारित बोनस की व्याख्या की और कामगारों के हितों की रक्षा के लिए न्यायिक प्रक्रियाओं में जनहित याचिका की भूमिका को महत्व दिया है

Speedy Trail हुसैनारा खातून : AIBE 20 विशेषांक

  हुसैनारा खातून एक सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक केस है, मामले में विचाराधीन कैदियों के अधिकारों का सवाल उठाया गया था, जो बिना मुकदमे के जेल में लंबे समय से बंद थे। सुप्रीम कोर्ट ने इस केस में कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत हर कैदी को शीघ्र और निःशुल्क कानूनी सहायता मिलना चाहिए। इस फैसले का परिणाम यह हुआ कि बिहार की जेलों में लगभग 40,000 विचाराधीन कैदियों को रिहा किया गया क्योंकि उन्हें उचित सुनवाई का अधिकार नहीं दिया गया था। यह केस भारतीय न्यायपालिका में जनहित याचिका (PIL) की शुरुआत माना जाता है और मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती ने इस मामले में मौलिक अधिकारों और न्याय तक पहुंच को सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई थी। इस फैसले ने ये स्थापित किया कि गरीबी या अशिक्षा के कारण किसी को न्याय से वंचित नहीं रखा जा सकता। संक्षेप में, हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979) केस भारत में न्याय प्रणाली में विचाराधीन कैदियों के अधिकारों और शीघ्र सुनवाई की आवश्यकता को उजागर करने वाला एक लैंडमार्क निर्णय है

वक्फ (Waqf)/ न्यास (Trust) : AIBE 20 विशेषांक

वक्फ (Waqf) मुस्लिम कानून में एक धार्मिक और सामाजिक संस्था है, जिसमें किसी चल या अचल संपत्ति को इस्लाम धर्म के नाम पर स्थायी रूप से समर्पित कर दिया जाता है ताकि उसकी आय या लाभ धार्मिक, पुण्य या धर्मार्थ कार्यों में उपयोग किया जा सके। वक्फ का अर्थ संपत्ति का ऐसा अवरोध है जो अल्लाह के नाम कर दिया गया हो और जिसका उपयोग न तो बेचा जा सके, न दिया जा सके या विरासत में दिया जा सके, बल्कि उसकी आय हमेशा सामाजिक और धार्मिक उद्देश्यों के लिए खर्च हो। वक्फ की प्रमुख विशेषताएं हैं: - यह एक स्थायी समर्पण होता है, जिसे रद्द नहीं किया जा सकता। - वक्फ की संपत्ति पर मालिकाना हक समाप्त हो जाता है और वह संपत्ति धार्मिक या सामाजिक कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हो जाती है। - वक्फ में दी गई संपत्ति का लाभ गरीबों, जरूरतमंदों, मस्जिदों, मदरसों, अस्पतालों, स्कूलों आदि धार्मिक या धर्मार्थ संस्थानों को दिया जाता है। - वक्फ के अंतर्गत संपत्ति को न तो बेच सकते हैं, न तो इसे उपहार के रूप में दे सकते हैं और न ही इसे विरासत में बाँट सकते हैं। भारत में वक्फ कानून वक्फ अधिनियम, 1995 के तहत नियंत्रित होता है और प्रत्येक राज्य म...

हिबा (Hiba)/दान: AIBE 20 विशेषांक

 हिबा (Hiba) मुस्लिम कानून में संपत्ति या वस्तु का बिना किसी प्रतिफल के दिया जाने वाला उपहार है। यह एक स्वैच्छिक और कानूनी रूप से बाध्यकारी कार्य है, जिसका अर्थ है कि दाता (जिसने उपहार दिया) अपनी वस्तु का स्वामित्व बिना किसी शर्त के हिबा के माध्यम से ग्रहणकर्ता को हस्तांतरित कर देता है। हिबा की प्रक्रिया में दाता द्वारा स्पष्ट घोषणा, ग्रहणकर्ता की स्वीकृति और वस्तु का कब्जा देना शामिल होता है। मुस्लिम कानून में हिबा के कुछ महत्वपूर्ण पहलू हैं: - हिबा के समय संपत्ति का अस्तित्व आवश्यक है, भविष्य की संपत्ति को हिबा नहीं किया जा सकता। - हिबा का मकसद वैध होना चाहिए; कोई हराम (निषिद्ध) वस्तु हिबा के रूप में नहीं दी जा सकती। - हिबा दो प्रकार के होते हैं: हिबा-बिल-नवाज़ (विनिमय के साथ हिबा) और हिबा-बा-शर्त-उल-इवाज़ (प्रतिफल के साथ हिबा)।  - हिबा-बिल-नवाज़ में दोनों पक्ष कुछ न कुछ विनिमय करते हैं, जैसे वस्तु के बदले वस्तु। - हिबा-बा-शर्त-उल-इवाज़ में शर्त होती है, और यदि वह शर्त पूरी नहीं होती तो हिबा रद्द भी हो सकता है। हिबा में किसी भी प्रकार की शर्तों के बावजूद कब्जा देना आवश्यक ...

इद्दत iddat (चार महीने और दस दिन) AIBE 20 विशेषांक

 इद्दत (Iddat) इस्लामी कानून में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो तलाक या पति की मृत्यु के बाद उस अवधि को दर्शाती है जिसे एक महिला को बिताना आवश्यक होता है, जिसमें वह पुनर्विवाह नहीं कर सकती। इद्दत का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि महिला गर्भवती है या नहीं, ताकि बच्चे की पिता की पहचान स्पष्ट रहे। इसके साथ ही यह मृत पति की विधवा के लिए मातृ शोक अवधि का भी पर्याय है, और तलाक के मामले में मेल-जोल के लिए एक सोच-विचार का समय प्रदान करता है। इद्दत का अवधि विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करती है: - तलाक के बाद , यदि विवाह पूरा हुआ हो (संभोग हुआ हो), तो महिला को तीन मासिक धर्म चक्र (तीन महीने) तक इद्दत का पालन करना होता है। - यदि महिला गर्भवती हो , तो इद्दत तब तक चलती है जब तक बच्चे का जन्म न हो या गर्भपात न हो जाए। - अगर महिला मासिक धर्म से मुक्त हो ( मेनोपॉज हो गई हो ), तो उसे तीन चांद के महीने इद्दत पूरी करनी होती है। - पति के मृत्यु पर इद्दत की अवधि चार महीने और दस दिन होती है, या अगर महिला गर्भवती हो तो बच्चे के जन्म तक। इद्दत के दौरान महिला को संयम का पालन करना जरूरी होता है, ज...

मुस्लिम समुदाय में तलाक के प्रकार : AIBE 20 विशेषांक

1. तलाक-उल-सुन्नत (Talaq-ul-Sunnat):    - यह पैगंबर की पारंपरिक परंपराओं पर आधारित तलाक है।    - इसके दो उपप्रकार हैं:      - तलाक-ए-अहसन (Talaq-e-Ahsan): एक बार तलाक दिया जाता है जब पत्नी मासिक धर्म में नहीं होती, फिर इद्दत अवधि (तीन मासिक धर्म चक्र) तक संबंध नहीं बनाया जाता।      - तलाक-ए-हसन (Talaq-e-Hasan): तीन बार तलाक मासिक धर्म के तीन अलग-अलग चक्रों में दिया जाता है, बिना संभोग के। 2. तलाक-ए-बिद्दत (Talaq-e-Biddat) या तीन तलाक:    - इसमें तीन बार तलाक एक साथ कहा जाता है, जिससे तत्काल तलाक हो जाता है।    - भारत में यह विधिवत अवैध घोषित है। 3. तलाक-ए-तफवीज (Talaq-e-Tafweez):    - यह पत्नी को पति द्वारा दिया गया तलाक का अधिकार है, जब पति द्वारा यह शक्ति सौंप दी जाती है। 4. खुला (Khula):    - पत्नी द्वारा पति से तलाक की मांग करना, जिसमें पत्नी कुछ मुआवजा देकर तलाक ले सकती है। 5. मुबारत (Mubarat):    - आपसी सहमति से पति और पत्नी दोनों मिलकर तलाक लेते हैं। 6. फस्ख (Faskh): ...

मर्ज उल मौत : AIBE 20 विशेषांक

मर्ज उल मौत (Marz-ul-Maut) का अर्थ है "मौत की बीमारी" या "डैथ बेड इलनेस"। यह उस स्थिति को दर्शाता है जब किसी व्यक्ति को ऐसी जानलेवा बीमारी हो जिसके कारण उसकी मृत्यु करीब हो और ठीक होने की संभावना बहुत कम हो। इसका निर्णय सामान्यतः एक चिकित्सक द्वारा किया जाता है। मर्ज उल मौत के दौरान व्यक्ति अपनी संपत्ति या धरोहर का एक विशेष हिस्सा (अधिकतर एक तिहाई से अधिक) गिफ्ट या ट्रांसफर कर सकता है, जिसे "डैथ बेड ट्रांजैक्शन" भी कहा जाता है। मर्ज उल मौत की प्रमुख विशेषताएं: - रोग ऐसा होना चाहिए जो मृत्यु का कारण बन सके। - रोगी के मन में मृत्यु की आशंका उत्पन्न हो। - रोग की स्थिति ऐसी हो कि व्यक्ति सामान्य क्रियाकलापों में असमर्थ हो जाए। मुस्लिम कानून में मर्ज उल मौत पर की गई गिफ्ट या संपत्ति अंतरण विशेष महत्व रखते हैं और यह डैथ बेड ट्रांजैक्शन के तहत मान्य होते हैं, बशर्ते कि इस दौरान उपहार देने वाला स्वस्थ विचार वाले और समझदार हो और गिफ्ट को प्राप्त करने वाला जीवित हो। संक्षेप में, मर्ज उल मौत वह अवस्था है जब कोई व्यक्ति जानलेवा बीमारी की स्थिति में हो और उसे अपनी अंति...

ख्यार उल बुलुग : AIBE 20 विशेषांक

  ख्यार उल बुलुग (Khyar-ul-Bulugh) का अर्थ है "यौवन का विकल्प"। यह इस्लामी कानून के तहत विवाह संबंधी एक अधिकार है जो किसी नाबालिग को दिया जाता है, जो यौवन (बालिग) हो जाने के बाद अपनी शादी को स्वीकार या अस्वीकार करने का विकल्प रखता है। इसका मतलब यह है कि यदि किसी व्यक्ति की शादी उसके यौवन के पहले कर दी गई हो, तो वह यौवन प्राप्त करने के बाद चाहे तो उस विवाह को रद्द कर सकता है या उसे बनाए रख सकता है। इस अधिकार का उद्देश्य नाबालिगों के हितों की सुरक्षा करना है, ताकि वे बालिग होने पर अपनी मर्जी से शादी का निर्णय ले सकें।  मुस्लिम कानून में यह एक महत्वपूर्ण सुरक्षा प्रावधान माना जाता है जो अवांछित या जबरन की गई शादियों से बचाता है। उदाहरणस्वरूप, यदि एक लड़की की शादी 15 वर्ष की आयु से पहले कर दी गई हो, तो वह 18 वर्ष की आयु तक इस विवाह को रद्द करने का अधिकार रखती है। यह अधिकार पुरुषों और स्त्रियों दोनों को प्राप्त होता है। यह प्रथा इस्लामी शरिया कानून की एक पारंपरिक व्यवस्था है, जिसे आधुनिक मुस्लिम विवाह कानूनों में भी शामिल किया गया है। संक्षेप में, ख्यार उल बुलुग नाबालिगों को बालि...

अभिव्यक्ति चाईल्ड केयर एंड ह्यूमन राइट फोरम

  गुड्डा भईया द्वारा एक फोरम की शुरुआत न्यायधानी बिलासपुर से की जा रही है जो निम्नलिखित बातों पर विचार विमर्श करते हुए यथाशक्ति, यथासंभव सक्रिय कार्य करने का प्रयास करेगी  बालकों से संबंधित सभी संवैधानिक प्रावधान एवं कानून की जमीनी हकीकत, लैंगिक अपराधों से बालकों के संरक्षण के लिए सक्षम प्राधिकारी एवं नोडल अधिकारियों की सटीक जानकारी, मानसिक स्वास्थ्य एवं देखरेख के लिए सरकारी तंत्र तथा इसमें खामियों पर चर्चा, दिव्यांगजन के विशिष्ट अधिकार तथा फर्जी दिव्यांगता प्रमाण पत्र के सहारे प्रचलित भ्रष्टाचार, निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के परिपालन में हो रही गड़बड़ियों पर चर्चा एवं इसके समाधान स्वरूप विधिक सेवाएं, बाल विवाह प्रतिषेध कानूनों के व्यवहारिक चुनौतियों पर चर्चा, मानव अधिकार आयोग से मिलता जुलता नाम के संगठन स्थापित कर दिग्भ्रमित कर स्वयं को समाजसेवी बतलाने वाले संदिग्धों की शिकायत कब कहां और कैसे करें इस पर चर्चा और समाधान,सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 का व्यवहारिक पक्ष, इसको ढाल बनाकर प्रताड़ित करने वाले संगठित प्रयास हो या सक्षम प्राधिकारियों द्वारा...