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वेश्यावृत्ति से उत्पन्न बच्चों का अधिकार गौरव जैन बनाम UOI : AIBE 20 विशेषांक

 गौरव जैन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (Gaurav Jain v. Union of India) एक सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण मामला है, जिसमें वेश्याओं के बच्चों और बाल वेश्याओं के अधिकारों और पुनर्वास को लेकर पीआईएल (जनहित याचिका) दायर की गई थी। इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वेश्याओं के बच्चे भी समाज के मुख्य धारा का हिस्सा हैं और उन्हें बिना किसी कलंक के सामाजिक जीवन में समान अवसर, गरिमा, देखभाल, और संरक्षण का अधिकार है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वेश्याओं के बच्चों को उनकी पहचान और उत्पत्ति के कारण अलग-थलग नहीं किया जाना चाहिए। इसके बजाय, उनका पुनर्वास और बेहतर जीवन सुनिश्चित करने के लिए विशेष योजनाएं बनानी चाहिए। कोर्ट ने मामले में एक समिति गठित करने और पुनर्वास तथा सामाजिक समावेशन के लिए नियमित रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। यह मामला 1997 में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुआ था, और इस निर्णयन से वेश्याओं के बच्चों को समाज में समान दर्जा मिलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई गई। न्यायालय ने इस मुद्दे पर गहरी संवेदनशीलता दिखाते हुए कहा कि समाज जिम्मेदार है कि वह ऐसे बच्चों को सामाजिक बहिष्कार से बचाए और उनक...

Passive ईच्छा मृत्यु, कॉमन कॉस vs UOI : AIBE 20 विशेषांक

  कॉमन कॉज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (Common Cause vs Union of India) एक सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण मामला है जो मुख्य रूप से "जीवन के अधिकार" (Article 21) के अंतर्गत "गौरव के साथ मरने का अधिकार" या "डिग्निटी के साथ मृत्यु का अधिकार" (right to die with dignity) से संबंधित है।  इस मामले में, पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (PIL) 2005 में दायर की गई थी, जिसमें कॉमन कॉज नामक संस्था ने दलील दी कि जीवन के अधिकार के साथ-साथ मृत्यु के अधिकार को भी संविधान में सुरक्षित किया जाना चाहिए। वे चाहते थे कि "Living Will" या एडवांस मेडिकल डायरेक्टिव (Advanced Medical Directive) को वैध माना जाए, जिससे कोई टर्मिनली बीमार मरीज अपनी अंतिम इच्छाओं को लिखित रूप में व्यक्त कर सके कि वह जीवन-रक्षक उपकरणों या अनावश्यक चिकित्सा सहायता से मुक्त रहना चाहता है।  2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में फैसला दिया कि "जीवन के अधिकार" के तहत "डिग्निटी के साथ मृत्यु का अधिकार" भी शामिल है। कोर्ट ने इस अधिकार को मान्यता देते हुए गाइडलाइंस जारी कीं, जिनमें पेसिव युथनेशिया ...

Missing Children बचपन बचाओ आंदोलन vs भारत संघ : AIBE 20 विशेषांक

 बचपन बचाओ आंदोलन बनाम भारत संघ सुप्रीम कोर्ट का एक प्रमुख जनहित याचिका (PIL) मामला है, जिसमें भारत में बाल अधिकारों के संरक्षण, बाल श्रम विरोधी कानूनों के कड़ाई से पालन, बाल तस्करी, बाल शोषण और बाल मजदूरी को समाप्त करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देशित किया गया। इस मामले में बचपन बचाओ आंदोलन (Bachpan Bachao Andolan), जो कि एक एनजीओ है, ने बच्चों के प्रति इन अत्याचारों को उजागर करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कार्रवाई की मांग की। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में बाल अधिकारों की रक्षा को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार), अनुच्छेद 24 (14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खतरनाक उद्योगों में काम करने से रोक), और अनुच्छेद 39 (e) तथा (f) के तहत राज्य की जिम्मेदारी माना। कोर्ट ने कहा कि बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, और सम्मान सहित सभी मूलभूत अधिकारों का संरक्षण मिलना चाहिए। कोर्ट ने केंद्र और राज्यों को निर्देश दिए कि वे बाल श्रम और बाल तस्करी के खिलाफ प्रभावी कदम उठाएं, बाल संरक्षण समितियाँ सक्रिय करें, बच्चों की सुरक्षा के लिए विशेष कानून बनाएं और लागू करें। कोर्ट ने...

Acid attack लक्ष्मी vs भारत संघ 2013 : AIBE 20 विशेषांक

लक्ष्मी बनाम भारत संघ एक सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक मामला है, जो मुख्यतः एसिड अटैक पीड़ितों के अधिकारों और सुरक्षा से संबंधित है । लक्ष्मी नामक एक युवा लड़की पर 2005 में क्रूर एसिड हमला हुआ था, जिसके बाद उसने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की। इस केस के कारण कोर्ट ने एसिड की बिक्री पर सख्त नियम और नियंत्रण लागू किए, साथ ही पीड़ितों के बेहतर इलाज और मुआवजे के प्रावधानों को सुनिश्चित किया। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एसिड अटैक को हत्या के प्रयास जैसा गंभीर अपराध माना और दोषियों को कड़ी सजा का आदेश दिया। साथ ही, एसिड खरीदने वालों के लिए कड़ी शर्तें लगाई गईं, जिससे बिना उचित कारण एसिड की खरीद पर नियंत्रण हो सके। कोर्ट ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे पीड़ितों को पुनर्वास, मानसिक चिकित्सा और अन्य सहायता उपलब्ध कराने के लिए प्रभावी कदम उठाएं। इस फैसला ने न केवल एसिड अटैक पीड़ितों के अधिकारों को सशक्त किया, बल्कि भारत में सार्वजनिक सुरक्षा कानूनों और अपराध नियंत्रण के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर स्थापित किया। लक्ष्मी बनाम भारत संघ का न्यायिक निर्णय सामाजि...

Re Noice Free Pollution case : AIBE 20 विशेषांक

 भारत में "In re Noise Pollution Case" एक सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला है, जिसमें कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जम्हाई, बढ़ी आवाज़, लाउडस्पीकर इत्यादि से उत्पन्न शोर प्रदूषण भी जीवन के अधिकार के उल्लंघन के समान है। इस मामले में कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत "प्रदूषणमुक्त और शांतिपूर्ण जीवन" का अधिकार मान्यता दी, जिसमें शोर प्रदूषण होना भी जीवन की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव डालता है।  फैसले में कोर्ट ने 10 बजे रात से 6 बजे सुबह तक के समय में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया और धार्मिक, सांस्कृतिक आयोजनों में शोर के स्तर को नियंत्रित करने संबंधी सख्त नियम बनाए। कोर्ट ने सरकारी एजेंसियों को निर्देश दिया कि वे शोर प्रदूषण नियंत्रण नियमों का पालन कराएं और आम जनता के स्वास्थ्य और आराम को प्राथमिकता दें।  इस निर्णय ने भारत में शोर प्रदूषण को नियंत्रण करने के लिए कानूनी आधार स्थापित किया और यह बताया कि सार्वजनिक शोर प्रदूषण न केवल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बल्कि यह एक नागरिक के शांतिपूर्ण जीवन के अधिकार का उल्लंघन भी है। इस केस के प्रसंग में कोर्ट ने सरक...

Right to Pollution free Environment सुभाष कुमार vs State of Bihar : AIBE 20 विशेषांक

 सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य (1991) भारत का एक महत्वपूर्ण पर्यावरण संरक्षण से संबंधित सुप्रीम कोर्ट केस है। इसमें याचिकाकर्ता सुभाष कुमार ने आरोप लगाया कि बिहार राज्य के पास स्थित दो औद्योगिक कारखाने (वेस्ट बोकारो कोलियरीज और टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी) ने आसपास के जल स्रोतों को प्रदूषित कर दिया है, जिससे लोग साफ पानी के अभाव में हैं और उनका जीवन प्रभावित हो रहा है।  सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यह स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और इस अधिकार में स्वच्छ जल तथा प्रदूषण मुक्त हवा का अधिकार भी सम्मिलित है। कोर्ट ने माना कि प्रदूषण मुक्त पर्यावरण का अधिकार जीवन के अधिकार का अभिन्न अंग है और राज्य तथा औद्योगिक संस्थाओं को इस दिशा में जिम्मेदार और सतर्क होना चाहिए। यह केस पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में एक मील का पत्थर माना जाता है क्योंकि इसने जनहित याचिका (PIL) के माध्यम से पर्यावरणीय अधिकारों की रक्षा को संवैधानिक रूप दिया तथा प्रदूषण नियंत्रण के लिए न्यायालय की सक्रिय भूमिका स्थापित की। साथ ही राज्य और उद्योगों को पर्यावरणीय संरक्ष...

गिरफ्तारी के दिशानिर्देश डी के बसु vs State of बंगाल : AIBE 20 विशेषांक

डी के बसु बनाम राज्य बंगाल (D.K. Basu vs State of West Bengal) एक landmark सुप्रीम कोर्ट मामला है जो पुलिस हिरासत में हुई हिंसा और कस्टोडियल उत्पीड़न (custodial violence) के खिलाफ केंद्रित है। इस मामले की शुरुआत 1986 में डी के बसु ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को एक पत्र भेजा था जिसमें पुलिस हिरासत में उत्पीड़न और मौतों की बढ़ती घटनाओं को उजागर किया गया था। इस पत्र को सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका के रूप में माना और इस पर सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पुलिस हिरासत के दौरान गिरफ्तारी और हिरासत के नियमों की अनिवार्य रूप से पालन करने हेतु 11 दिशानिर्देश (guidelines) जारी किए, जिनका उद्देश्य हिरासत में रखे गए व्यक्ति के मानवाधिकारों और संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) की रक्षा करना था। इनमें शामिल थे: - गिरफ्तारी के समय व्यक्ति को गिरफ्तारी के कारण की जानकारी तुरंत और उसकी समझ में आने वाली भाषा में दी जाए। - गिरफ्तारी के बाद पुलिस रजिस्टर में रिकॉर्ड किया जाए। - गिरफ्तारी की सूचना तुरंत किसी परिचित व्यक्ति या परिवार को दी जाए। - गिरफ्तार व्यक्ति को वक...

Living Conditions of Prisoners in Jail शिला बारसे vs State of Maharashtra : AIBE 20 विशेषांक

 शिला बारसे बनाम महाराष्ट्र राज्य (Sheela Barse vs State of Maharashtra, 1983) एक landmark न्यायालयीन मामला है जिसमें महिलाओं के प्रति पुलिस कस्टोडियल अत्याचार और जेल में महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन प्रमुखता से सामने आया। इस मामले में पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्त्ता शिला बारसे ने सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र लिखा था, जिसमें मुंबई सेंट्रल जेल की महिलाओं के साथ पुलिस द्वारा की गई मारपीट और बलात्कार की शिकायतें थीं।  सुप्रीम कोर्ट ने इस पत्र को संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका माना और महाराष्ट्र सरकार व जेल प्रशासन को नोटिस जारी किया। कोर्ट ने निर्देश दिया कि महिलाओं के लिए अलग-अलग लॉकअप बने हों तथा उनकी पूछताछ केवल महिला पुलिस अधिकारियों द्वारा ही की जाए। राज्य को यह भी आदेश दिया गया कि गरीब कैदियों को नि:शुल्क कानूनी मदद दी जाए। कोर्ट ने जेलों में महिलाओं के मानवाधिकारों की रक्षा को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 21) के अंतर्गत माना। इस निर्णय ने जेलों में बंद महिला कैदियों के अधिकारों को मजबूत किया, पुलिस कस्टडी में महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार को ...

जजेस ट्रांसफर केस/ एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ

एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ (S.P. Gupta vs Union of India) 1981 का एक महत्वपूर्ण सुप्रीम कोर्ट का फैसला है जिसे " पहला जजेस केस" या "जजेस ट्रांसफर केस" भी कहा जाता है। इस मामले में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रक्रिया को लेकर विवाद हुआ। मुख्य मुद्दा यह था कि उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति में केंद्र सरकार की भूमिका कितनी होनी चाहिए और क्या इस प्रक्रिया में न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित हो रही है। मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि राष्ट्रपति, जो कि मंत्रिमंडल की सलाह पर कार्य करता है, न्यायाधीशों की नियुक्ति का अंतिम अधिकारी होता है। कोर्ट ने कहा कि "परामर्श" का मतलब "सहमति" नहीं है, यानी राष्ट्रपति को न्यायपालिका से परामर्श करना होता है, लेकिन उनकी राय को बाध्यकारी नहीं माना जाएगा। इस निर्णय में कार्यपालिका को ज्यादा प्राथमिकता दी गई और न्यायपालिका की भूमिका सीमित की गई। यद्यपि इस फैसले के बाद न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर आलोचना हुई और बाद में "तीन जजों के मामले" में (1993) ...

Transgender नालसा VS State of Rajasthan : AIBE 20 विशेषांक

 NALSA बनाम राज्य राजस्थान (National Legal Services Authority vs State of Rajasthan) का संबंध मुख्य रूप से ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों के संरक्षण और कानूनी मान्यता से है। NALSA (National Legal Services Authority) ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी ताकि ट्रांसजेंडर समुदाय को 'तीसरा लिंग' कानूनी रूप से मान्यता मिले और उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा हो।  सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में ट्रांसजेंडर को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देते हुए यह स्पष्ट किया कि वे संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (भेदभाव से सुरक्षा), अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के तहत समान अधिकार के हकदार हैं। कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया कि वे ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए आवश्यक सामाजिक, आर्थिक, और कानूनी सहायता उपलब्ध कराएं, जिसमें शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवा, और भेदभाव रहित जीवन शामिल है।  राजस्थान सरकार समेत अन्य राज्यों को भी इस फैसले का पालन करते हुए ट्रांसजेंडर लोगों के लिए समुचित कल्याणकारी योजनाएं बनानी और कानून व्य...

Emergency medical Aid परमानन्द कटारा vs UOI : AIBE 20 विशेषांक

 परमानंद कटारा बनाम भारत संघ (1989) एक महत्वपूर्ण सुप्रीम कोर्ट का फैसला है, जिसमें यह तय किया गया कि सड़क दुर्घटना में घायल किसी भी व्यक्ति को तत्काल चिकित्सा सहायता देना हर अस्पताल और डॉक्टर का कर्तव्य है, चाहे वह सरकारी हो या निजी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के तहत राज्य की जिम्मेदारी को रेखांकित किया कि वह जीवन की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि चिकित्सा सहायता देने में किसी भी प्रकार की कानूनी औपचारिकताओं को प्राथमिकता नहीं दी जानी चाहिए।  मामले की पृष्ठभूमि में एक अखबार की रिपोर्ट के आधार पर मानवाधिकार कार्यकर्ता पंडित परमानंद कटारा ने जनहित याचिका दायर की थी जिसमें बताया गया कि एक स्कूटर सवार को रास्ते में घायल होने पर अस्पताल में तुरंत इलाज नहीं मिला क्योंकि अस्पताल मेडिको-लीगल केसों के लिए अधिकृत नहीं था और उसे दूसरे अस्पताल भेज दिया गया जो 20 किमी दूर था। इस विलंब के कारण घायल की मृत्यु हो गई। सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि ऐसे किसी भी घायल को तुरंत चिकित्सा सहायता दी जानी चाहिए ताकि जीवन बचाया जा सके औ...